भारत ने वल्र्डकप क्या जीत लिया, केंद्र सरकार से लेकर प्रदेश सरकारों में खिलाडिय़ों को इनाम देने की होड़ सी लग गई है। हर कोई ज्यादा से ज्यादा देकर खुद को क्रिकेट का बड़ा शुभचिंतक साबित करने में जुटा हुआ है। यह बात और है कि इन सबके पीछे सिर्फ पब्लिसिटी से ज्यादा कुछ भी नहीं है। अब सवाल यह है कि इनाम बांटने के नाम पर जो सरकारी खजानों को राजनेता लुटा रहे हैं, वह बता सकते हैं कि यह पैसा क्या उनके बाप का है? आखिर कैसे आम आदमी के पैसे को बिना उसकी अनुमति के ऐसे बर्बाद किया जा सकता है? प्रणव मुखर्जी जी वैसे तो बड़े समझदार और शलीन नेताओं में शुमार होते हैं। भारत सरकार का वित्त मंत्रालय उनके हवाले है। लेकिन उन्होंने भी आईसीसी को टैक्स में ४५ करोड़ की छूट देते समय एक बार भी नहीं सोचा कि इस पैसे पर अधिकार किसका है। वित्तमंत्री होने का मतलब क्या खजाने का मालिक होना होता है? अगर नहीं तो फिर किस हैसियत से भारतीय खजाने को चूना लगाया जा रहा है। माननीय यहां तक भी नहीं रुके और इनामों की इस बरसात को भी टैक्स फ्री कर दिया। टैक्स का दायरा दस हजार रुपए तक बढ़ाने में तो पूरी सरकार को जोर आ जाता है, लेकिन खुद की वाहवाही के लिए खजाने को नुकसान पहुंचाते समय क्या सरकार और उसके नुमाइंदे एक बार भी सोचने को मजबूर होते हैं?
इनाम बांटने की इस भेड़चाल में तारीफ होनी चाहिए राजस्थान और उत्तर प्रदेश सरकार की। उन्होंने संयमित तौर पर इनाम देने की घोषणा की। गहलोत सरकार ने खिलाडिय़ों को राजस्थान भ्रमण का न्यौता दिया और उत्तर प्रदेश सरकार ने अपने दोनों खिलाड़ी सुरेश रैना और पियूष चावला को कांशीराम खेल रत्न देने की बात कही। आखिर खेल को खेल ही रहने दिया जाए तो वह सबके लिए फायदेमंद है। अगर सरकारों को देना ही है तो इस पैसे को खेलों के ग्रासरूट पर विकास के लिए दे देते। खेलों की आधारभूत संरचनाओं को विकसित करने पर खर्च करते, शायद हर कोई इसकी तारीफ करता। आखिर आम आदमी का पैसा आम आदमी के पास ही तो आना चाहिए। कॉमनवेल्थ खेलों का आयोजन सरकार के पास था तो भ्रष्टाचार के माध्यम से खजाने को चूना लगाया गया। लेकिन वल्र्डकप का आयोजन तो सरकार के पास नहीं था, फिर भी खजाने को नुकसान पहुंचाने में कोई कसर बाकी नहीं रखी गई। आखिर कब सुधरेंगे भारत के यह खद्दरधारी!
दुआ करो कभी तो इस देश में कुछ सही होगा, आमीन!
सोमवार, 4 अप्रैल 2011
सोमवार, 7 फ़रवरी 2011
चम्बल कि जय बोल.........
इन दिनों भिंड मै हूँ, एक ऐसा शहर जहाँ पर लोग घर का राशन खरीदने से पहले बन्दूक के लिए गोली खरीदना पसंद करते है। यहाँ के लोगों का मिजाज अलग है, या कह सकता हूँ कि ये उनका नहीं बल्कि चम्बल का मिजाज है। वो चम्बल जिसने कभी गुलामी नहीं स्वीकारी, जिसने कभी दस्ता का साथ नहीं दिया। बस चम्बल चली तो सिर्फ अपनी मर्जी से। जय हो........
किसी ने भिंड के बारे मै कहा है कि यहाँ पर लोग विरासत मै जमीन जायदाद छोड़ना पसंद नहीं करते, बल्कि जमीन जायदाद से आज के लिए गोली और बन्दूक लेना ज्यादा पसंद करते है। कुछ क्या काफी हद तक सही भी है। बन्दूक यहाँ का शौक है, जूनून है और पहला प्यार भी। यहाँ का बच्चा शायद तो इसी सपने को जीता है। कहते है कि चम्बल का पानी ही लोगों को बागी बनता है। अन्याय और गुलामी के खिलाफ चम्बल हमेशा बोली है। यहाँ अगर कोई बागी बना है तो सिर्फ अपने आधिकारों के लिए। चाहे फिर मलखान सिंह हो या फिर पुतलीबाई। हर कोई अपने सिद्धांतों के साथ आया और जिन्दगी को चम्बल के भरकों मै समर्पित कर दिया। लेकिन आज चम्बल खामोश है और दुखी भी, इसलिए नहीं कि चम्बल मै कोई नहीं है, बल्कि इसलिए कि चम्बलको आज भी सिर्फ डकेतों के लिए जाना जाता है, इस बीच लोग भूल जाते है कि इस देश की सीमाओं पर सपूतों की एक फ़ौज चम्बल के बेटों की है। आज चम्बल विकास कि और जा रही है। चम्बल का पानी अब अपने अधिकारों के लिए खौल नहीं रहा है। बल्कि कल कल कर बह रहा है। उसे उम्मीद है कि शायद काला कल बीत गया है और अब नया सवेरा नया इतिहास लेकर आया है। नयी उम्मीदों के साथ चम्बल शांत है, जैसे कि एक माँ प्रशव के बाद अपने बच्चे को देखकर उसमें अपना कल तलाशती है। कल कि कल्पना मै खुश भी होती है, लेकिन खामोश रहकर।......
सोमवार, 3 जनवरी 2011
क्या हाल है दिल का....
दिल का क्या हाल है कह नहीं सकता
मेरा क्यों बुरा हांल है कह नहीं सकता
तुम समझो मुझे भले ही दीवाना
पर मै खुद को दीवाना कह नहीं सकता
क्यों खामोश है नज़र ये मेरी
पास महबूब है फिर भी देख क्यों नहीं सकता
नज़रों का ये धोखा ही सही, क्या पता
पर मै तो दिल को दोखा दे नहीं सकता
तुम पास होकर भी क्यों इतने दूर हो
दूरी का एहसास क्या तुम्हें हो नहीं सकता।
मेरा क्यों बुरा हांल है कह नहीं सकता
तुम समझो मुझे भले ही दीवाना
पर मै खुद को दीवाना कह नहीं सकता
क्यों खामोश है नज़र ये मेरी
पास महबूब है फिर भी देख क्यों नहीं सकता
नज़रों का ये धोखा ही सही, क्या पता
पर मै तो दिल को दोखा दे नहीं सकता
तुम पास होकर भी क्यों इतने दूर हो
दूरी का एहसास क्या तुम्हें हो नहीं सकता।
बुधवार, 29 सितंबर 2010
इतना आसान है फैसला?
अयोध्या मामले में सुप्रीम कोर्ट की हरी झंडी के बाद इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बैंच गुरुवार को अपना फैसला सुनाएगी। तीन जजों की खंडपीठ क्या फैसला सुनाएगी, यह तो जजों के दिमाग में ही होगा। शायद ही है उन लोगों ने इस बारे में किसी से कुछ बात भी की हो। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या इस मामले में फैसला सुनाना उनके लिए आसान होगा। खासकर तब जब सबूतों को आस्था की तराजू पर तोला जाएगा। जमीन पर मालिकाना हक सबसे अहम मुद्दा है। शायद यह सामान्य तौर का मामला होता तो बड़ी आसानी से सुलझाया जा सकता था। लेकिन बड़ी से बड़ी दलील इस देश में आस्था की दहलीज पर दम तोड़ देती है। सुप्रीम कोर्ट ने फैसले को रोकने की याचिका खारिज क्या की, मेरे दिमाग में नया शिगूफा चल निकला। हर किसी से बस एक ही सवाल कि अगर वह तीन जजों की खंडपीठ में होते तो क्या फैसला देते? सवाल बचकाना था, लेकिन मकसद सिर्फ लोगों का मन टटोलना था। शायद मैं इसमें काफी हद तक सफल भी हुआ।
लेकिन हमारे एक मित्र ने मुझे पूरी तरह से झकझोर दिया। स्वभाव से मजाकिया लेकिन जवाब बड़े-बड़ों को सदियों तक सोचने पर मजबूर कर सकता है। उनका जवाब कुछ इन शब्दों में था, विवादित जगह को जस का तस छोड़ दिया जाए। उसे पर्यटन स्थल घोषित कर दिया जाए। प्रवेश शुल्क के तौर पर सौ रुपए प्रति व्यक्ति लिया जाए। वहां पर प्रशिक्षित गाइडों की नियुक्ति की जाए, जो वहां आने वाले लोगों को बताएंगे कि यह वही जगह है जो दशकों से लोगों को एक दूसरे का दुश्मन बना रही है। धर्म और ईश्वर के नाम पर लोगों को बांट रही है। भाई को भाई का दुश्मन बना रही है। यह वही जगह है जिसने 1992 में पूरे देश में दंगा-फसाद खड़े कर दिए थे। लाखों लोगों को एक-दूसरे की जान का दुश्मन बना दिया। पड़ोसी ने पड़ोसी को मारा, भाई ने भाई का खून बहाया। कुल मिलाकर लोगों को बताया जाए कि आखिर ईश्वर और अल्लाह के नाम पर इस देश में क्या हो रहा है। धर्म के ठेकेदार वोटों के ठेकेदारों के साथ मिलकर किस तरह लोगों की भावनाओं से खेल रहे हैं।
मित्र ने यह आदेश भले ही मजाक में कहा हो, लेकिन यह हर समझदार आदमी को झकझोरने के लिए काफी है। आखिर हमें क्या हो जाता है। हम उनके लिए जानवर बन जाते हैं, जिन्हें हमने देखा नहीं है। ईश्वर और अल्लाह दोनों की महसूस करने की शक्ति हैं। शायद ही कोई दावा करे के उसने इनको देखा है। जब इनको देखा ही नहीं है तो फिर इनके लिए मंदिर और मसजिद की जरूरत क्या है? कोई भगवान और कोई अल्लाह कभी किसी से कुछ नहीं मांगता है। भगवान राम के नाम पर जो लोग खून बहाने को तैयार हो जाते हैं, वह शायद यह भूल जाते हैं कि जिन राम ने कभी आदमी और जानवर में भेद नहीं समझा। दोनों का सहारा लेकर राक्षसों का नाश किया। उन राम के नाम पर अगर हम आदमी में ही भेद करेंगे तो शायद हमें नर्क भी नसीब नहीं होगा। अल्लाह के बंदे होने का दावा करने वाले भूल जाते हैं कि पाक कुरान शरीफ की नसीहतें क्या हैं। कोई भी धर्म खून नहीं मांगता, वैमनश्य नहीं फैलाता, तो फिर हम क्यों धर्म के नाम पर राजनीति करते हैं?
आज फिर फैसले की घड़ी आ रही है, फैसला सुनाना जजों के लिए संभव नहीं है। वह जो भी कर रहे हैं, वह अपने विवेक के आधार पर बेहतर निर्णय देंगे। लेकिन यह जरूरी नहीं कि उनका निर्णय सभी की आस्थाओं को संतुष्ट कर सके। लेकिन उसका मतलब यह भी नहीं कि हम उसके विरोध में देश में आग लगा दें। अगर हमने ऐसा किया तो फिर वास्तव में इस देश में विवादित जगह पर यथास्थिति बरकरार रखते हुए पर्यटन स्थल बनाने की सलाह ही नेक होगी। जो आने वाली पीडिय़ों को हमारी गलतियों की याद दिलाती रहेंगी और आने वाली पीडिय़ां हमारी मूर्खता पर हमें कोसती रहेंगी।
लेकिन हमारे एक मित्र ने मुझे पूरी तरह से झकझोर दिया। स्वभाव से मजाकिया लेकिन जवाब बड़े-बड़ों को सदियों तक सोचने पर मजबूर कर सकता है। उनका जवाब कुछ इन शब्दों में था, विवादित जगह को जस का तस छोड़ दिया जाए। उसे पर्यटन स्थल घोषित कर दिया जाए। प्रवेश शुल्क के तौर पर सौ रुपए प्रति व्यक्ति लिया जाए। वहां पर प्रशिक्षित गाइडों की नियुक्ति की जाए, जो वहां आने वाले लोगों को बताएंगे कि यह वही जगह है जो दशकों से लोगों को एक दूसरे का दुश्मन बना रही है। धर्म और ईश्वर के नाम पर लोगों को बांट रही है। भाई को भाई का दुश्मन बना रही है। यह वही जगह है जिसने 1992 में पूरे देश में दंगा-फसाद खड़े कर दिए थे। लाखों लोगों को एक-दूसरे की जान का दुश्मन बना दिया। पड़ोसी ने पड़ोसी को मारा, भाई ने भाई का खून बहाया। कुल मिलाकर लोगों को बताया जाए कि आखिर ईश्वर और अल्लाह के नाम पर इस देश में क्या हो रहा है। धर्म के ठेकेदार वोटों के ठेकेदारों के साथ मिलकर किस तरह लोगों की भावनाओं से खेल रहे हैं।
मित्र ने यह आदेश भले ही मजाक में कहा हो, लेकिन यह हर समझदार आदमी को झकझोरने के लिए काफी है। आखिर हमें क्या हो जाता है। हम उनके लिए जानवर बन जाते हैं, जिन्हें हमने देखा नहीं है। ईश्वर और अल्लाह दोनों की महसूस करने की शक्ति हैं। शायद ही कोई दावा करे के उसने इनको देखा है। जब इनको देखा ही नहीं है तो फिर इनके लिए मंदिर और मसजिद की जरूरत क्या है? कोई भगवान और कोई अल्लाह कभी किसी से कुछ नहीं मांगता है। भगवान राम के नाम पर जो लोग खून बहाने को तैयार हो जाते हैं, वह शायद यह भूल जाते हैं कि जिन राम ने कभी आदमी और जानवर में भेद नहीं समझा। दोनों का सहारा लेकर राक्षसों का नाश किया। उन राम के नाम पर अगर हम आदमी में ही भेद करेंगे तो शायद हमें नर्क भी नसीब नहीं होगा। अल्लाह के बंदे होने का दावा करने वाले भूल जाते हैं कि पाक कुरान शरीफ की नसीहतें क्या हैं। कोई भी धर्म खून नहीं मांगता, वैमनश्य नहीं फैलाता, तो फिर हम क्यों धर्म के नाम पर राजनीति करते हैं?
आज फिर फैसले की घड़ी आ रही है, फैसला सुनाना जजों के लिए संभव नहीं है। वह जो भी कर रहे हैं, वह अपने विवेक के आधार पर बेहतर निर्णय देंगे। लेकिन यह जरूरी नहीं कि उनका निर्णय सभी की आस्थाओं को संतुष्ट कर सके। लेकिन उसका मतलब यह भी नहीं कि हम उसके विरोध में देश में आग लगा दें। अगर हमने ऐसा किया तो फिर वास्तव में इस देश में विवादित जगह पर यथास्थिति बरकरार रखते हुए पर्यटन स्थल बनाने की सलाह ही नेक होगी। जो आने वाली पीडिय़ों को हमारी गलतियों की याद दिलाती रहेंगी और आने वाली पीडिय़ां हमारी मूर्खता पर हमें कोसती रहेंगी।
रविवार, 1 अगस्त 2010
आज फ्रैंडशिप डे है।
आज फ्रैंडशिप डे है। दोस्तों के संदेश मोबाइल के इनबॉक्स में लगातार आ रहे हैं। मेरी भी कोशिश है कि हर दोस्त को एक मैसेज तो भेज ही दूं। लेकिन कई को नहीं भेज पाया हूं और कई छूट गए हैं। इन सबके बीच में बस दिमाग में एक ही बात चल रही है कि क्या दोस्ती को भी दिन की जरूरत होती है? क्या संदेश भेजने से ही दोस्ती और दोस्तों की पहचान होती है? अगर हां तो फिर मैं किसी का दोस्त नहीं हूं। दोस्तों की पहचान जरूरत के वक्त होती है और शायद में उन खुशनसीब लोगों में हूं, जिन्हें जरूरत के वक्त दोस्तों की पूरी फौज का साथ मिलता है। वो भी ऐसे दोस्तों का जिन्हें दोस्ती के लिए दिखावे की जरूरत नहीं है। ....................जय हो।
पैसा मेरा, प्रयोग इनके
अफसरशाही को प्रयोगों का शौक होता है, यही कारण है कि एक के प्रयोग में दूसरे को कमी नजर आती है। ऐसे दूसरे के प्रयोग को बंद कर खुद के प्रयोग को सफल बनाने की पूरी कोशिश होती है। इसी कोशिश में लाखों रुपया पानी की तरह बर्बाद कर दिया जाता है। पैसा बर्बाद करते समय कोई भी यह जानने की कोशिश नहीं करता है कि टैक्स से मिला यह पैसा आम आदमी ने कितनी मुश्किलों के बाद कमाया होगा। आखिर फिक्र हो भी तो क्यों? पैसा खुद का नहीं है और दूसरे के पैसे को बर्बाद करना सबसे आसान काम है।
ऐसे ही प्रयोगों का दौर ग्वालियर में चल रहा है। प्रयोग है, आईटी क्षेत्र में अव्वल होने का। इन प्रयोगों के जरिए हर कोई खुद को आईटी का दिग्गज साबित करने में जुटा हुआ है। कलेक्टर ने केंद्र सरकार की बहुउपयोगी एमपी ऑनलाइन वेबसाइट को किनारे कर जनमित्र योजना प्रारंभ कर दी। मकसद सिर्फ इतना है कि इससे घर बैठकर लोगों को राजस्व संबंधी जानकारी मुहैया हो सकेगी। मैदानी अमले की बायोमैट्रिक हाजिरी संभव हो सकेगी। लेकिन मजे की बात यह है कि जनमित्र में सिर्फ राजस्व की जानकारी उपलब्ध हो पा रही है, वहीं एमपी ऑनलाइन में प्रदेश सरकार के बाकी सभी विभाग जुड़े हुए हैं और उनकी पूरी जानकारी घर बैठे हासिल की जा सकती है। बस राजस्व रिकॉर्ड को उसमें नहीं जोड़ा गया है, वो भी सिर्फ ग्वालियर जिले में। बाकी सभी जिलों में यही वेबसाइट कारगर साबित हो रही है। लेकिन यहां पर कलेक्टर का प्रयोग इस पर भारी पड़ गया है। अपने अभियान को सफल बनाने के लिए सरकारी अमले को भी इसमें भिड़ा दिया गया है। कलेक्टर के साथ दूसरे विभाग भी इसी तरह के अभियानों में जुटे हुए हैं। पुलिस महकमा सीपा को तो पूरी तरह से अपना नहीं पाया है। नए सॉफ्टवेयर बनवाने में जुटा हुआ है। जो विभाग सभी थानों में एफआईआर को तो पूरी तरह से कंप्यूटर पर नहीं निकलवा पा रहा है, वह सॉफ्टवेयर बनवा रहा है। अब इसे मजाक नहीं कहा जाएगा, तो और क्या कहा जाएगा। सीएसपी स्तर के अधिकारियों को सॉफ्टवेयर चलाने के लिए लैपटाप दिए जा रहे हैं। आखिर इसके लिए पैसा किसकी जेब से खर्च हो रहा है, यह सोचने की फुर्सत किसी को नहीं है। भू-राजस्व विभाग भी तमाम पुराने सॉफ्टवेयर को छोड़कर दूसरे नए सॉफ्टवेयर बनवा रहा है। भले ही पुराने सॉफ्टवेयर अपनी कोई औपचारिकता साबित नहीं कर पाए हैं,अब नए क्या करेंगे खुद ही सवाल खड़ा होता है। आबकारी विभाग तो इन सबसे आगे है। वह पिछले कई सालों से अपने विभाग को कंप्यूटरीकृत करने में जुटा है, लेकिन काम अब तक पूरा नहीं हो पाया है। यह बात और है कि उस काम का निर्धारित बजट बढ़कर दो-गुना जरूर हो गया है। कुल मिलाकर साफ है कि हर कोई पब्लिक की जेब काटकर अपने प्रयोग करने में जुटे हुआ है। अब वह प्रयोग सफल हों, न हो इससे किसी को भी कोई वास्ता नहीं है। बस वास्ता है तो सिर्फ अपने प्रयोगों पर खर्च करते रहने का। जबकि अगर खुले दिल से सोचा जाए तो पुराने प्रयोगों को मजबूत करने की कोशिश हो तो शायद परिणाम भी सार्थक नजर आएं। दरअसल, सरकारी मशीनरी जब तक किसी नई चीज को समझने का प्रयास करती है। तब तक दूसरा आकर उसको बदल देता है। ऐसे में न पुराना हो पाता है और न ही नया कुछ कर पाता है। चाहे कलेक्टर हों, कमिश्रर या दूसरे विभागों के आला अफसर, अगर वह नए प्रयोग करने से पहले आगे-पीछे के प्रयोगों को देख लें। तो शायद काफी हद तक समस्या सुलझ सकती है। ऐसे में सभी का प्रयास समस्याओं को सुलझाने की ओर होना चाहिए। अगर समस्याएं सुलझ गईं तो खुद व खुद वाहवाही मिल ही जाएगी, वो भी बिना किसी नए प्रयोग को किए। ..................................जय हो।
मंगलवार, 27 जुलाई 2010
न मंजिल, न मकां तय किया हमने, बस चलते जाना है
न मंजिल, न मकां तय किया हमने, बस चलते जाना है
दर्द की रीति पुरानी है, अब आंसुओं पर मुस्कुराना है।
तुम मिलो तो सही, न भी मिलो तो सही
सब कुछ छोड़ दिया हमने, अब तो चलते जाना है।
राह सही, राहगुजर सही, आंखों पर सजी अश्कों की बारात सही
रुकती-रुकती सांसे जरा थम जाओ, हमें उनसे मिलने जाना है।
प्यार, मोहब्बत, दीन, दुनिया सब बेमानी हैं मेरे वास्ते
फिर भी ढूंढते हैं राह का साथी, क्या करें बहुत दूर तक जाना है।
दर्द की रीति पुरानी है, अब आंसुओं पर मुस्कुराना है।
तुम मिलो तो सही, न भी मिलो तो सही
सब कुछ छोड़ दिया हमने, अब तो चलते जाना है।
राह सही, राहगुजर सही, आंखों पर सजी अश्कों की बारात सही
रुकती-रुकती सांसे जरा थम जाओ, हमें उनसे मिलने जाना है।
प्यार, मोहब्बत, दीन, दुनिया सब बेमानी हैं मेरे वास्ते
फिर भी ढूंढते हैं राह का साथी, क्या करें बहुत दूर तक जाना है।
सदस्यता लें
संदेश (Atom)