रविवार, 7 सितंबर 2008

आखिर अमेरिका की ये मेहरबानी क्यों?

आखिरकार मेहनत रंग लायी, भारत को एनएसजी से परमाणु करार के लिए मंजूरी मिल गई। इसके लिए बड़ी मेहनत्त भी की गई थी। अब मंजूरी किन सर्तों पर मिली है, यह न तो सरकार बता रही है और न ही कोई दोसरा इसे स्पस्ट कर रहा है। आखिर यहाँ पर मुल्हाहिजा फरमाने की जरूरत है, भारत एनएसजी का मेंबर भी नही है। उसकी और से पैरोकारी कथित हिमायती अमेरिका ने की है। उसने तीन दिन एनएसजी के मेम्बरान को मानाने मई कोई कसार नही छोडी, जिसने भी विरोध किया उससे समर्थन के लिए मजबूर किया। चीन जैसा देश भी आखरी दिन चुप्पी साध गया। अब करार को अमेरिकी कांग्रेस की मंजूरी का इंतजार है। लेकिन मेरा मन अब भी यह मानने को टियर नही है की ये भारत के लिए एतिहासिक जीत है। आखिर अमेरिका की इतनी मेहरबानी हम पर क्यों हो रही है। बगेर अपने फायदे के जो कुछ न करता हो, वह भारत के लिए सब कुछ लुटाने को राजी है। आखिर हम मई ऐसा क्या है, जो अमेरिका को भा गया है। आखिर क्यों वह हमरे लिए इतनी म्हणत कर रहा है। सबसे बड़ा सवाल अभी भी उन्सुल्झा है। भारत तर्क है की उसे बिना किसी शर्त के ये मंजूरी मिली है। लेकिन अगर बिना शर्त के मंजूरी मिलनी थी तो प्रणब मुखर्जी को एनएसजी से पहले ये कहानी की क्या जरूरत थी की भारत परमाणु परिक्षण नही करेगा। जो भी सवाल तो सवाल ही रहेगा, जब तक की उसका जवाब नही मिल जाता। फिर बुश का अपने लोगों को भेजा गया गुप्त पत्र किस डील का हिस्सा है। अगर बुश का पत्र ग़लत है, तो वह अपने देस के अपने लोगों को गुमराह कर रहे है। अगर सही है तो भारत जानबूझकर गुमराह हो रहा है। अगर मन लिया जाए बुश ने ग़लत पत्र लिखा है, तो सवाल खड़ा होता है की जो अपने देश को ही मूर्ख बना रहा है, वह हमारे लिए कितना भरोसेमंद है? सवाल भले ही छोटा हो, लेकिन इसमे ही पूरी दिल की सत्यता छुपी हुई है। अब जवाब कौन देगा, ये न तो हम जानते है और न ही कोई दूसरा फिर भी का इंतज़ार तो रहेगा ही.

आखिर मेहनत रंग लायी

जिन लोगों को तलाशने निकला था, शायद इतना आसन नही था। फिर भी उम्मीद थी की काम तो पूरा होगा ही। मई और मेरा कैमरामैन गलियों मई लोगों को तलाश रहे थे। पहली तलाश मै कोई ज्यादा दिक्कत नही आई। लेकिन उदासी ही हाथ लगी, जिस बच्ची ने शहर से टॉप किया था, वह अपने गाँव गई हुई थी, ऐसे मै ले देकर उनके घर मै किसी ने उसकी एक फोटो तलाश कर दी। उससे काम चल गया, अब निशाना अगले मुकाम पर था। सो हम लोग चल दिए। ये तलाश शायद हमारे लिए मुश्किल थी, कारन हम ऐसी बस्ती मै थे, जिसे शहरी लिहाज से ज्यादा बहतर नही कहा जा सकता। फिर भी कोशिश करनी थी और की भी। जिसे तलाश रहे थे वह तो नही मिला लकिन उसका नम्बर मिल गया। फ़ोन किया तो उसने मिलने का ठिकाना बताया। वहां पहुंचे तो खुशी का ठिकाना नही रहा, कारन एक और बच्चा वहां पर पहले से थे। अब हमारी खोज सिर्फ़ दो पर रह गई। एक तो मिल गया, लेकिन रत के 11 बज चुके थे। एक और बच्चे की तक्ष की लेकिन एक घंटे की मेहनत कराने के बाद भी वह नही मिला। ऐसे मै उहाँ से हम ऑफिस के लिए निकले ही थे की तेज बरसात सुरु हो गई। फिर भी ऑफिस की और गाड़ी तेजी से जा रही थी, हम पूरी तरह से भींग चुके थे। फिर भी हम ऑफिस आ गए। ऑफिस मै आते ही बिजली गोल हो गई। इन्वेर्टर डिस्चार्ज हो उका था। अब तो फाइल भेजने का भी संकट, करें तो क्या। कोई विकल्प नही। तुंरत दोस्त के यहाँ पर फ़ोन किया। उसके यहाँ पर इन्टरनेट था। उसके घर पहुंचे तो उहाँ पर भी बिजली जा चुकी थी। अब क्या करता, इंतजार कराने के सिवा बचा ही क्या था। किया, बिजली की मेहरबानी हुई फोटो उहन्न से ट्रांसफर भी हो गई। लकिन तब तक एडिशन जा चुका था। बेमन से घर के लिए चला, पानी फिर भी गिर रहा था। दोबारा भींग रहा था, लकिन अब शायद कुछ जयादा मजा आ रहा था, क्योंकि मै सब कुछ भुला चुका था। रूम पर आया तो खाने के लिए भी कुछ नई था। करता क्या, रात के दो बज चुके थे। सो गया चुपचाप।