रविवार, 1 अगस्त 2010

आज फ्रैंडशिप डे है।

आज फ्रैंडशिप डे है। दोस्तों के संदेश मोबाइल के इनबॉक्स में लगातार आ रहे हैं। मेरी भी कोशिश है कि हर दोस्त को एक मैसेज तो भेज ही दूं। लेकिन कई को नहीं भेज पाया हूं और कई छूट गए हैं। इन सबके बीच में बस दिमाग में एक ही बात चल रही है कि क्या दोस्ती को भी दिन की जरूरत होती है? क्या संदेश भेजने से ही दोस्ती और दोस्तों की पहचान होती है? अगर हां तो फिर मैं किसी का दोस्त नहीं हूं। दोस्तों की पहचान जरूरत के वक्त होती है और शायद में उन खुशनसीब लोगों में हूं, जिन्हें जरूरत के वक्त दोस्तों की पूरी फौज का साथ मिलता है। वो भी ऐसे दोस्तों का जिन्हें दोस्ती के लिए दिखावे की जरूरत नहीं है। ....................जय हो।

पैसा मेरा, प्रयोग इनके


अफसरशाही को प्रयोगों का शौक होता है, यही कारण है कि एक के प्रयोग में दूसरे को कमी नजर आती है। ऐसे दूसरे के प्रयोग को बंद कर खुद के प्रयोग को सफल बनाने की पूरी कोशिश होती है। इसी कोशिश में लाखों रुपया पानी की तरह बर्बाद कर दिया जाता है। पैसा बर्बाद करते समय कोई भी यह जानने की कोशिश नहीं करता है कि टैक्स से मिला यह पैसा आम आदमी ने कितनी मुश्किलों के बाद कमाया होगा। आखिर फिक्र हो भी तो क्यों? पैसा खुद का नहीं है और दूसरे के पैसे को बर्बाद करना सबसे आसान काम है।
ऐसे ही प्रयोगों का दौर ग्वालियर में चल रहा है। प्रयोग है, आईटी क्षेत्र में अव्वल होने का। इन प्रयोगों के जरिए हर कोई खुद को आईटी का दिग्गज साबित करने में जुटा हुआ है। कलेक्टर ने केंद्र सरकार की बहुउपयोगी एमपी ऑनलाइन वेबसाइट को किनारे कर जनमित्र योजना प्रारंभ कर दी। मकसद सिर्फ इतना है कि इससे घर बैठकर लोगों को राजस्व संबंधी जानकारी मुहैया हो सकेगी। मैदानी अमले की बायोमैट्रिक हाजिरी संभव हो सकेगी। लेकिन मजे की बात यह है कि जनमित्र में सिर्फ राजस्व की जानकारी उपलब्ध हो पा रही है, वहीं एमपी ऑनलाइन में प्रदेश सरकार के बाकी सभी विभाग जुड़े हुए हैं और उनकी पूरी जानकारी घर बैठे हासिल की जा सकती है। बस राजस्व रिकॉर्ड को उसमें नहीं जोड़ा गया है, वो भी सिर्फ ग्वालियर जिले में। बाकी सभी जिलों में यही वेबसाइट कारगर साबित हो रही है। लेकिन यहां पर कलेक्टर का प्रयोग इस पर भारी पड़ गया है। अपने अभियान को सफल बनाने के लिए सरकारी अमले को भी इसमें भिड़ा दिया गया है। कलेक्टर के साथ दूसरे विभाग भी इसी तरह के अभियानों में जुटे हुए हैं। पुलिस महकमा सीपा को तो पूरी तरह से अपना नहीं पाया है। नए सॉफ्टवेयर बनवाने में जुटा हुआ है। जो विभाग सभी थानों में एफआईआर को तो पूरी तरह से कंप्यूटर पर नहीं निकलवा पा रहा है, वह सॉफ्टवेयर बनवा रहा है। अब इसे मजाक नहीं कहा जाएगा, तो और क्या कहा जाएगा। सीएसपी स्तर के अधिकारियों को सॉफ्टवेयर चलाने के लिए लैपटाप दिए जा रहे हैं। आखिर इसके लिए पैसा किसकी जेब से खर्च हो रहा है, यह सोचने की फुर्सत किसी को नहीं है। भू-राजस्व विभाग भी तमाम पुराने सॉफ्टवेयर को छोड़कर दूसरे नए सॉफ्टवेयर बनवा रहा है। भले ही पुराने सॉफ्टवेयर अपनी कोई औपचारिकता साबित नहीं कर पाए हैं,अब नए क्या करेंगे खुद ही सवाल खड़ा होता है। आबकारी विभाग तो इन सबसे आगे है। वह पिछले कई सालों से अपने विभाग को कंप्यूटरीकृत करने में जुटा है, लेकिन काम अब तक पूरा नहीं हो पाया है। यह बात और है कि उस काम का निर्धारित बजट बढ़कर दो-गुना जरूर हो गया है। कुल मिलाकर साफ है कि हर कोई पब्लिक की जेब काटकर अपने प्रयोग करने में जुटे हुआ है। अब वह प्रयोग सफल हों, न हो इससे किसी को भी कोई वास्ता नहीं है। बस वास्ता है तो सिर्फ अपने प्रयोगों पर खर्च करते रहने का। जबकि अगर खुले दिल से सोचा जाए तो पुराने प्रयोगों को मजबूत करने की कोशिश हो तो शायद परिणाम भी सार्थक नजर आएं। दरअसल, सरकारी मशीनरी जब तक किसी नई चीज को समझने का प्रयास करती है। तब तक दूसरा आकर उसको बदल देता है। ऐसे में न पुराना हो पाता है और न ही नया कुछ कर पाता है। चाहे कलेक्टर हों, कमिश्रर या दूसरे विभागों के आला अफसर, अगर वह नए प्रयोग करने से पहले आगे-पीछे के प्रयोगों को देख लें। तो शायद काफी हद तक समस्या सुलझ सकती है। ऐसे में सभी का प्रयास समस्याओं को सुलझाने की ओर होना चाहिए। अगर समस्याएं सुलझ गईं तो खुद व खुद वाहवाही मिल ही जाएगी, वो भी बिना किसी नए प्रयोग को किए। ..................................जय हो।