बुधवार, 1 अक्तूबर 2008

अब गाँधी को तो मत घसीटो!

आज गाँधी जयंती है। तय है, गाँधी जी के वादों के हिसाब से जीने मरने की कसमें खाई जाएँगी। उन्हें याद कराने का ढोंग भी किया ही जाएगा। किया भी गया, राज्य की दोनों बड़ी पार्टियों ने गाँधी को याद कराने की नौटंकी की है, इसके साथ ही उन्होंने अपने राजनीतिक हित साधने की भी कोशिश की है। कुल मिलकर चुनावी माहौल मै गाँधी की याद सिर्फ़ वोटों के लिए आई है। हद तो ये हो गई है की गाँधी को लेकर कांग्रेस और भाजपा ने विज्ञापन जारी कर दिए हैं। भाजपा जहाँ गाँधी को जबरन धर्म परिवर्तन के खिलाफ दिखाकर अपने नम्बर ज्यादा करना चाह रही है, तो वहीं कांग्रेस भी ऐसे मौके को कहाँ पर छोड़ने वाली थी। उसने भी विज्ञापन जारी कर गाँधी जी के बहाने सरकार पर निशाना साधा है। लेकिन मेरा मन आज दुखी है, हो भी क्यों न आखिर बापू भी वोटों के लिए इस्तेमाल तो होने ही लगे है। फिर कांग्रेस हो या भाजपा सभी को गाँधी के नाम पर वोटों की भी दिखाई दे रही है। ऐसे अब इसे कौन छोड़ दे। आखिर दोनों को लाल बहादुर शास्त्री की याद नही आई, आती भी कैसे उनके नाम पर भाई वोट कौन देगा। अब बाज़ार का जमाना है, सो जो बिकेगा वो दिखेगा। लेकिन वोट के इन दलालों से कौन कहे की गाँधी को अब तो चैन से रहने दो, उन्हें बाज़ार का हिस्सा तो मत बनाओ। मै तो बस यही कहूँगा की गाँधी को अब तो चैन से सोने दो। बाकी भगवान जाने। आमीन!!!!!!

रविवार, 7 सितंबर 2008

आखिर अमेरिका की ये मेहरबानी क्यों?

आखिरकार मेहनत रंग लायी, भारत को एनएसजी से परमाणु करार के लिए मंजूरी मिल गई। इसके लिए बड़ी मेहनत्त भी की गई थी। अब मंजूरी किन सर्तों पर मिली है, यह न तो सरकार बता रही है और न ही कोई दोसरा इसे स्पस्ट कर रहा है। आखिर यहाँ पर मुल्हाहिजा फरमाने की जरूरत है, भारत एनएसजी का मेंबर भी नही है। उसकी और से पैरोकारी कथित हिमायती अमेरिका ने की है। उसने तीन दिन एनएसजी के मेम्बरान को मानाने मई कोई कसार नही छोडी, जिसने भी विरोध किया उससे समर्थन के लिए मजबूर किया। चीन जैसा देश भी आखरी दिन चुप्पी साध गया। अब करार को अमेरिकी कांग्रेस की मंजूरी का इंतजार है। लेकिन मेरा मन अब भी यह मानने को टियर नही है की ये भारत के लिए एतिहासिक जीत है। आखिर अमेरिका की इतनी मेहरबानी हम पर क्यों हो रही है। बगेर अपने फायदे के जो कुछ न करता हो, वह भारत के लिए सब कुछ लुटाने को राजी है। आखिर हम मई ऐसा क्या है, जो अमेरिका को भा गया है। आखिर क्यों वह हमरे लिए इतनी म्हणत कर रहा है। सबसे बड़ा सवाल अभी भी उन्सुल्झा है। भारत तर्क है की उसे बिना किसी शर्त के ये मंजूरी मिली है। लेकिन अगर बिना शर्त के मंजूरी मिलनी थी तो प्रणब मुखर्जी को एनएसजी से पहले ये कहानी की क्या जरूरत थी की भारत परमाणु परिक्षण नही करेगा। जो भी सवाल तो सवाल ही रहेगा, जब तक की उसका जवाब नही मिल जाता। फिर बुश का अपने लोगों को भेजा गया गुप्त पत्र किस डील का हिस्सा है। अगर बुश का पत्र ग़लत है, तो वह अपने देस के अपने लोगों को गुमराह कर रहे है। अगर सही है तो भारत जानबूझकर गुमराह हो रहा है। अगर मन लिया जाए बुश ने ग़लत पत्र लिखा है, तो सवाल खड़ा होता है की जो अपने देश को ही मूर्ख बना रहा है, वह हमारे लिए कितना भरोसेमंद है? सवाल भले ही छोटा हो, लेकिन इसमे ही पूरी दिल की सत्यता छुपी हुई है। अब जवाब कौन देगा, ये न तो हम जानते है और न ही कोई दूसरा फिर भी का इंतज़ार तो रहेगा ही.

आखिर मेहनत रंग लायी

जिन लोगों को तलाशने निकला था, शायद इतना आसन नही था। फिर भी उम्मीद थी की काम तो पूरा होगा ही। मई और मेरा कैमरामैन गलियों मई लोगों को तलाश रहे थे। पहली तलाश मै कोई ज्यादा दिक्कत नही आई। लेकिन उदासी ही हाथ लगी, जिस बच्ची ने शहर से टॉप किया था, वह अपने गाँव गई हुई थी, ऐसे मै ले देकर उनके घर मै किसी ने उसकी एक फोटो तलाश कर दी। उससे काम चल गया, अब निशाना अगले मुकाम पर था। सो हम लोग चल दिए। ये तलाश शायद हमारे लिए मुश्किल थी, कारन हम ऐसी बस्ती मै थे, जिसे शहरी लिहाज से ज्यादा बहतर नही कहा जा सकता। फिर भी कोशिश करनी थी और की भी। जिसे तलाश रहे थे वह तो नही मिला लकिन उसका नम्बर मिल गया। फ़ोन किया तो उसने मिलने का ठिकाना बताया। वहां पहुंचे तो खुशी का ठिकाना नही रहा, कारन एक और बच्चा वहां पर पहले से थे। अब हमारी खोज सिर्फ़ दो पर रह गई। एक तो मिल गया, लेकिन रत के 11 बज चुके थे। एक और बच्चे की तक्ष की लेकिन एक घंटे की मेहनत कराने के बाद भी वह नही मिला। ऐसे मै उहाँ से हम ऑफिस के लिए निकले ही थे की तेज बरसात सुरु हो गई। फिर भी ऑफिस की और गाड़ी तेजी से जा रही थी, हम पूरी तरह से भींग चुके थे। फिर भी हम ऑफिस आ गए। ऑफिस मै आते ही बिजली गोल हो गई। इन्वेर्टर डिस्चार्ज हो उका था। अब तो फाइल भेजने का भी संकट, करें तो क्या। कोई विकल्प नही। तुंरत दोस्त के यहाँ पर फ़ोन किया। उसके यहाँ पर इन्टरनेट था। उसके घर पहुंचे तो उहाँ पर भी बिजली जा चुकी थी। अब क्या करता, इंतजार कराने के सिवा बचा ही क्या था। किया, बिजली की मेहरबानी हुई फोटो उहन्न से ट्रांसफर भी हो गई। लकिन तब तक एडिशन जा चुका था। बेमन से घर के लिए चला, पानी फिर भी गिर रहा था। दोबारा भींग रहा था, लकिन अब शायद कुछ जयादा मजा आ रहा था, क्योंकि मै सब कुछ भुला चुका था। रूम पर आया तो खाने के लिए भी कुछ नई था। करता क्या, रात के दो बज चुके थे। सो गया चुपचाप।

मंगलवार, 8 जुलाई 2008

वो रात कभी न आए!

कहते है की मेहनत का फल मीठा होता है, शायद सही भी है। लेकिन इतनी मेहनत के बात कोई फल मीठा हो तो कोई ऐसा फल खाने से ही परहेज करेगा। ऐसा ही वाकया मेरे साथ गुजरा। कुल मिलकर दिल अब भी कहता है की ऐसी रात फिर न आए। उस रात की यादें कुछ खास हो गई हैं जो मै मिटाना नही चाहता, या यूँ कहें की मिटाने का दिल नही कर रहा है। दिल की क्या है, वो तो हर खासो आम को जगह दे देता है। घुमा फिराकर बात कहने का कोई मजा नही है। हफ्ते भर पहले की बात है, हुआ यह की मैं सुबह काम से जल्दी ऑफिस आ गया। ऐसे मै मुझे खाना खाने का भी ख्याल नही रहा। ऑफिस मै वही roj की चाय पी और लग गया तीन तेरह मैं, खाने की तो जैसे भूल ही गया। दिन बीता, शाम आई, इरादा कुछ मस्ती का था। तभी याद आया की आज एक शादी मै जाना है। रूम पर आया, कपडे बदले और बस जाने के लिए किसी का इंतजार कर ही रहा था की यह मित्र भी आ धमके। वे भी किसी महाशय की कार मै सवार होकर आए थे, मजबूरन उन महाशय को मुझे भी लिफ्ट तो देनी ही थी। बचारों ने न चाहते हुए भी मुझे अपने साथ बिठा लिया। समय मुस्किल से सवा नौ हुआ होगा। रस्ते मै था, तभी भोपाल ऑफिस के फ़ोन ने मेरे सुस्त पड़े मोबाइल को चिल्लाने के लिए मजबूर कर दिया। बेचारा मोबाइल रोता क्या न करता। मैंने तुरत फुरत मै फ़ोन उठाया, तब तक मुझे इस बात का पूरा अंदाजा हो चुका था की मेरी bend बजने वाली है। बताया गया, पी एम् टी का रिजल्ट आ गया है। शीर्ष दस मैं से फाइव ग्वालियर से है। सभी की फोटो साहित डिटेल भेजना है। फ़ोन कराने वाले महाशय ने बताया जल्दी करके देना पेज एक पर जायेगी। डाक एडिशन main भी जाना है, ये बौस का हुक्म है। बस इतना कहा की मेरे तो होश उड़ गए, कारन जिनके फोटो और डिटेल मुझे भेजने थे उनका एड्रेस ही मुझे मालूम था। और ग्वालियर main एक बात बिल्कुल साफ है की यहाँ पर एड्रेस से कोई नही मिलता। अब करता क्या, मेरी गाड़ी भी मेरे पास नही थी। अपने रिपोर्टर को फ़ोन लगाया, जो की घर जा चुका था। फ़ोन नोट रेचेबल आ रहा था। फोटोग्राफ़र को फ़ोन किया, उसे मैंने शादी वाली जगह पर ही बुलाया। उसने दस मिनट mai पहुँचने की बात कही। आया भी, वो दस मिनट दस घंटे लग rahe थे। हम दोनों वहां से निकले और खोज बीन सुरु की जो शायद आसन नही थी। फिर भी काम तो करना ही था। अनजान शहर मैं गलियों को खोज रहा था। .................................(to be continued)

सोमवार, 9 जून 2008

ये तो हद हो गई

कल रात अचानक से मारा मोबाइल बजा, उठा कर देखा तो उसमें एक एसमएस आया हुआ था। देखा तो परचित मित्र का ही था। एसमएस खोलकर देखा तो ओठों पर मुस्कान तैर गई। लेकिन दिल मैं एक दर्द उभर आया की कहीं ये मजाक कल की हकीकत तो नही। समझ मैं नही आया काफी देर तक उस एसमएस को लाकर सोचता रहा, जब नहीं रहा गया तो इसे सामने ले आया।
कुछ ऐसा था एसमएस :
नई परीक्षा पॉलिसी :
सामान्य : सभी प्रश्नों के उत्तर अनिवार्य है।
ओबीसी : किसी एक प्रश्न का उत्तर अनिवार्य है।
एससी : प्रश्न पड़ना भर काफी है।
एसटी : परीक्षा मई आने के लिए धन्यवाद।
गुर्जर : दूसरों को परीक्षा मई आने देने के लिए धन्यवाद।
एक हंसी के साथ पूरा मन हिल गया, आखिर क्या हो रहा है। भले ही यह एसमएस मजाक मैं था लेकिन कहीं न कहीं हमारी व्यवस्था पर चोट जरूर कर रहा था। आखिर कहाँ जा रहा है समाज, अगर आरक्षण का यही हाल रहा तो फिर ये दिन आना भी कोई ज्यादा दूर नही है। मैं आरक्षण के खिलाफ नही हूँ, लेकिन खिलाफ हूँ उसे बांटने के सिस्टम से। क्या आरक्षण कोई खैरात मैं बताने वाली चेज नही है। न ही यह जबरदस्ती हासिल कराने वाली वस्तु ? लकिन कुछ का जवाब हाँ है तो फिर उन्हें कल की फिक्र करनी चाहिए की कल क्या होगा। हर कोई राह चलते आरक्षण मांगेगा। किसी को नौकरी मैं आरक्षण की जरुरत होगी तो किसी को कुछ और काम से। सम्भव है की आने वाले कल मैं बिना आरक्षण के कुछ सोचना ही बेमानी सा लगे। आखिर आरक्षण कोई खैरात नही है जो हर किसी को बाँट दिया जाए। सोचना होगा की इसे किसको दिया जाए और क्यों दिया जाए। क्या सिर्फ इस लिए देना सही होगा की वह जोर जबरदस्ती से मांग रहा है, या फिर उसे वाकई मैं जरूरत है। कहीं न कहीं हमें समाज के साथ बराबरी का नजरिया तो रखना ही होगा। आखिर सुनहरे कल की नीवं यहीं से तो रखी जायेगी। मैं तो यही कहूँगा की ये एसमएस सिर्फ मजाक बनकर ही रहे इससे ज्यादा कुछ हुआ तो नुकसान हम सब का होगा।
आमीन!!!

शनिवार, 7 जून 2008

अब तों बंद करो!

गुर्जर आन्दोलन जोरों पर है, हर ओर गुस्सा और नाराजगी है। बेंसला डटे है, लेकिन सवाल है की उन्हें आरक्षण मिल जाएगा। मिलाना भी चाहिए इससे मुझे न तो एतराज था और न अब है। लेकिन एक टीस अभी भी मन मैं चुभ रही है की उन्हें तो कुछ मिलना है लेकिन उनका क्या कसूर जो बिना किसी वजह के इस आन्दोलन का शिकार हो रहे है। आखिर उनका क्या कसूर है जो इस आन्दोलन के कारन अपने घर भी नहीं जा पा रहे है। आखिर गुर्जर इन लोगों को क्या जवाब देंगे। शायद उनके पास इसका भी जवाब हो, लेकिन गुर्जरों के आन्दोलन ने कुछ सवाल तो खड़े कर ही दिए हैं। पहला सवाल तो यही है की क्या इस तरह के आन्दोलन जायज है? क्या दूसरों को परेशान कर और राष्ट्रीय सम्प्पति को नुकसान पहुँचाकर ही आन्दोलन सफल होते है? क्या उससे पहले सरकारों को इसकी गूंज सुने नही देती, या यूं कहें की अनसुनी कर दी जाती है। सवाल जायज है या नही, मुझे नही मालूम लेकिन इतना जरूर जनता हूँ की उनकी परेशानी जायज है जो इस आन्दोलन मैं परेशान हो रहे है।
रस्ते रोके गए हैं, सड़कों पर आवागमन नहीं हो रहा है। नुकसान देश का हो रहा है। इसकी फिकर किसको। हमें, तुम्हें या फिर गुर्जरों को? अगर सही कहें तो किसी को नहीं। अगर होती तो इस तरह के आन्दोलनको हवा देने का काम कटाई नही करते। सरकारों को भी इस पर एक बार सोचना होगा। अगर नही सोच तो कल बेहतर होगा इस बात मैं संशय है। ऐसे मैं यही जरूरी है की हम सब मिल बैठकर इसका हल सोचें और अपनी उर्जा को देस के विकास मैं लगाएं।

शनिवार, 31 मई 2008

पत्रिका लांच हो गया है

राजस्थान पत्रिका भोपाल मई लॉन्च हो गया है। अपनी साख के अनुसार उसने भोपाल के लोगों का भी दिल जीतने मैं कोई कसर नही छोडी है। पत्रिका की नजर अब इंदौर पर है उसके बाद ग्वालियर आना तय मन जा रहा है। इसके यहाँ पर मार्च मैं आने की उम्मीद है। लकिन उससे पहले है दूसरे अखबारों की धड़कने तेज हो गई है.