रविवार, 7 सितंबर 2008

आखिर मेहनत रंग लायी

जिन लोगों को तलाशने निकला था, शायद इतना आसन नही था। फिर भी उम्मीद थी की काम तो पूरा होगा ही। मई और मेरा कैमरामैन गलियों मई लोगों को तलाश रहे थे। पहली तलाश मै कोई ज्यादा दिक्कत नही आई। लेकिन उदासी ही हाथ लगी, जिस बच्ची ने शहर से टॉप किया था, वह अपने गाँव गई हुई थी, ऐसे मै ले देकर उनके घर मै किसी ने उसकी एक फोटो तलाश कर दी। उससे काम चल गया, अब निशाना अगले मुकाम पर था। सो हम लोग चल दिए। ये तलाश शायद हमारे लिए मुश्किल थी, कारन हम ऐसी बस्ती मै थे, जिसे शहरी लिहाज से ज्यादा बहतर नही कहा जा सकता। फिर भी कोशिश करनी थी और की भी। जिसे तलाश रहे थे वह तो नही मिला लकिन उसका नम्बर मिल गया। फ़ोन किया तो उसने मिलने का ठिकाना बताया। वहां पहुंचे तो खुशी का ठिकाना नही रहा, कारन एक और बच्चा वहां पर पहले से थे। अब हमारी खोज सिर्फ़ दो पर रह गई। एक तो मिल गया, लेकिन रत के 11 बज चुके थे। एक और बच्चे की तक्ष की लेकिन एक घंटे की मेहनत कराने के बाद भी वह नही मिला। ऐसे मै उहाँ से हम ऑफिस के लिए निकले ही थे की तेज बरसात सुरु हो गई। फिर भी ऑफिस की और गाड़ी तेजी से जा रही थी, हम पूरी तरह से भींग चुके थे। फिर भी हम ऑफिस आ गए। ऑफिस मै आते ही बिजली गोल हो गई। इन्वेर्टर डिस्चार्ज हो उका था। अब तो फाइल भेजने का भी संकट, करें तो क्या। कोई विकल्प नही। तुंरत दोस्त के यहाँ पर फ़ोन किया। उसके यहाँ पर इन्टरनेट था। उसके घर पहुंचे तो उहाँ पर भी बिजली जा चुकी थी। अब क्या करता, इंतजार कराने के सिवा बचा ही क्या था। किया, बिजली की मेहरबानी हुई फोटो उहन्न से ट्रांसफर भी हो गई। लकिन तब तक एडिशन जा चुका था। बेमन से घर के लिए चला, पानी फिर भी गिर रहा था। दोबारा भींग रहा था, लकिन अब शायद कुछ जयादा मजा आ रहा था, क्योंकि मै सब कुछ भुला चुका था। रूम पर आया तो खाने के लिए भी कुछ नई था। करता क्या, रात के दो बज चुके थे। सो गया चुपचाप।

कोई टिप्पणी नहीं: