गुरुवार, 27 अगस्त 2009

पब्लिक नेताओं की जय बोल!

आजकल टीवी पर एक विज्ञापन खूब दिख रहा है, विज्ञापन है हरियाणा सरकार का। वही हरियाणा सरकार जिसे भंग करने की सिफारिश वहां की कैबिनेट ने खुद मुख्यमंत्री की अध्यक्षता में कर दी है। विज्ञापन में मुख्यमंत्री अपनी कालर चमकाते नजर आते हैं। कहा जाता है कि हरियाणा विकास के मामले में नंबर वन हो गया है। नंबर वन हरियाणा के नाम से शुरू हुई यह विज्ञापन केम्पेन हरियाणा के सूचना एवं जन संपर्क विभाग की ओर से है। यह विज्ञापन कई सवाल खुद ब खुद खड़े कर देता है। खासकर तब जब खुद हरियाणा के तथाकथित विकास की हालत किसी से छुपी नहीं है। बावजूद इसके मुख्यमंत्री भूपेंदर सिंह हुड्डा खुद को विकास पुरुष साबित करने में जुटे हुए हैं। अब सवाल यह है कि करोड़ों रुपए देकर खुद को विकास का मसीहा साबित करने का काम खुद मुख्यमंत्री कर रहे हैं। वह भी तब जब वह खुद विधानसभा भंग करने की सिफारिश कर चुके हैं। मतलब साफ है, अगले कुछ दिनों में चुनाव होने हैं। ऐसे में सरकारी पैसे से खुद की तारीफ करने का काम किया जा रहा है। अब सवाल यह है कि सरकारी खजाने का पैसा क्या हुड्डा अपने घर से लेकर आए हैं जो अपनी कालर चमकाने के लिए बर्बाद कर रहे हैं। आखिर यह नेता क्यों नहीं समझते कि जिस पैसे को वह पानी की तरह बहाते हैं, वह किसी कीगाढ़ी कमाई का हिस्सा है। सवाल यह नहीं है कि पैसा केसे बहाया जा रहा है, सवाल यह है कि पैसा किस लिए बहाया जा रहा है। सिर्फ अपनी तारीफों के लिए पैसा खर्च करना कहां तक सही है, वह भी तब जब खुद देश में सूखा मुंह खोलकर खड़ा हुआ है। स्वास्थ्य, बिजली, पानी, सडक़ और शिक्षा जैसी मूलभूत सुविधाओं की हालत देश में बद से बद्तर है। बावजूद इसके किसी को भी इसकी चिंता नहीं है, तो फिर हुड्डा को चिंता करके करना क्या है? इस देश में हुड्डा अकेले ऐसे नेता नहीं हैं, जो देश की जनता की गाढ़ी कमाई को बर्बाद करने से परहेज नहीं करते हैं। इस देश में हुड्डा सरीखे नेताओं की फौज कम नहीं है। कभी इंडिया शाइनिंग के नाम पर अरबों रुपए खर्च कर दिए गए तो फिर कभी बदलेगा इंडिया पर अरबों रुपए फूंक दिए। अब उत्तर प्रदेश में मायावती को ही देख लो, जिंदा में ही मूर्तियां लगवाने निकल पड़ी हैं। करोड़ों रुपए अंबेडकर स्मारक के नाम पर फूंक दिए और अरबों रुपए अपनी मूर्तियों पर फूंकने में जुटी हुई हैं। अगर मायावती डॉ भीमराव अंबेडकर के सिद्धांतों को समझ गई होती तो उन्हें उनके नाम पर स्मारक बनवाने की जरूरत नहीं पड़ती, उसकी जगह पर वह जरूरत मंद लोगों के विकास की बात वह कर रही होतीं। भारतीय राजनीति में मायावती शायद एकमात्र ऐसी नेता होंगी, जिन्होंने जिंदा में ही अपनी मूर्तियां लगवाना शुरू कर दिया है। अब मायावती को कौन समझाए कि जिस पैसे से वह मूर्तियां लगवा रही हैं, वो पैसा वह अपने घर से लेकर नहीं आई हैं। यह पैसा आम आदमी की जेब से आया है और उसे खर्च करने का पहला अधिकार उसी आम आदमी का है। लेकिन सवाल यह है कि यह कौन समझाए? इससे भी बड़ा सवाल यह है कि यह समझेगा कौन? महाराष्ट्र को ही ले लें, चुनाव नजदीक हैं सो मराठा कार्ड खेलना राजनीति की जरूरत थी, सो हो गया ऐलान कि अरब सागर में शिवाजी का स्मारक बनेगा। स्मारक बनाने का ठेका भी दे दिया गया किसी विदेशी कम्पनी को। इस स्मारक के बारे में सोचकर यह समझने कि भूल करने कि जरूरत कतई नहीं है कि महाराष्ट्र के नेताओं को शिवाजी से कोई प्रेम उत्पन्न हो गया है। यह तो राजनीति कि जरूरत है जो शिवाजी को भी बेचने की तैयारी हो गई है। कुल मिलाकर इस देश में आम आदमी के पैसे को जैसे बर्बाद किया जा सकता है, सरकार और उनके नुमांइदे करने में जुटे हैं। किसी को भी इस बात कि फिकर नहीं है कि इस पैसे पर पहला अधिकार किसका है। खादी खद्दर पहनने भर से देश का भविष्य बनाने का मुगालता इस देश के नेताओं में आ गया है। मजे की बात यह है कि पैसे की फिजूलखर्ची का विरोध करने वाला भी कोई नहीं है। कारण साफ है, हमाम में सब नंगे जो हैं। कौन किसको सीख दे। अपनी तारीफों के पुलिंदे बांधने वाले विज्ञापनों और खुद की मूर्तियां लगाने वालों को करना तो यह चाहिए था कि वह इन सब में पैसा खर्च करने कि बजाय अगर सच में आम आदमी के विकास को ध्यान में रखकर काम करते तो उन्हें यह सब कुछ नहीं करना पड़ता। रही बात स्मारक बनाने की, तो मैं इसका कोई विरोधी नहीं हूं। लेकिन कोई भी महापुरुष यह नहीं कहता कि पत्थर लगाकर उसको याद करो। अगर महापुरुषों को याद ही करना है तो उनके आदर्शों को अपनाने कि जरूरत होगी, जो शायद इन खादीधारियों के बस की बात नहीं है। कुल मिलाकर यही कह सकता हूं कि पब्लिक इन नेताओं की जय बोल!!!
आमीन !!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!

रविवार, 9 अगस्त 2009

पीएचडी, न बाबा न!

अगर आप जीवाजी विश्वविद्यालय से पीएचडी करने का मन बना रहे हैं तो सावधान हो जाएं। अब आपको पहले के मुकाबले पांच गुना तक जेब ढीली करनी पड़ सकती है। जीवाजी विवि ने पीएचडी की फीस में पांच गुना तक बढ़ोतरी की है। ऎसे में यहां पर पूरे प्रदेश के मुकाबले पीएचडी सबसे महंगी हो गई है।
सूत्रों के मुताबिक, जीवाजी विवि ने जुलाई से अपना नया फीस कैलेंडर शुरू किया है। उसी के हिसाब से फीस ली जा रही है। नए कैलेंडर में कुछ विभागों और पाठयक्रमों की फीस बढ़ाई गई है। उन्हीं पाठयक्रमों में पीएचडी भी शामिल है। अभी तक विश्वविद्यालय में पीएचडी की फीस दस हजार रूपए के करीब हुआ करती थी, लेकिन अब उसे बढ़ाकर पचास हजार रूपए कर दिया गया है। कुल मिलाकर पीएचडी करना आम शोधकर्ता की जेब से काफी दूर होती नजर आ रही है। हालांकि विश्वविद्यालय का यह फैसला शिक्षाविदों को रास नहीं आ रहा है। वह इसे आम छात्र से पीएचडी दूर करने की साजिश करार दे रहे हैं।
मालूम नहीं, फीस बढ़ी
विश्वविद्यालय में फीस बढ़ा दी गई है और मजे की बात यह है कि कुलसचिव इस बात से पूरी तरह अंजान हैं। पत्रिका ने कुलसचिव पीएन जोशी से जब इस बारे में बात करनी चाही तो उन्होंने कहा कि उन्हें इस बारे में कोई जानकारी नहीं है। हालांकि उन्होंने एक दो दिन में जानकारी कर बताने का आश्वासन दिया है।
प्रदेश में सबसे महंगी पीएचडी
अगर पूरे प्रदेश की बात करें तो जीवाजी विश्वविद्यालय पीएचडी कराने के मामले में सबसे महंगा हो गया है। प्रदेश के पांचों सरकारी विश्वविद्यालयों के मुकाबले जीवाजी विश्वविद्यालय की फीस सबसे ज्यादा है। दूसरे विश्वविद्यालय 15 से 20 हजार रूपए बतौर फीस वसूल करते हैं, जबकि जीवाजी विश्वविद्यालय ने फीस को कई गुना बढ़ा दिया है।
पीएचडी की फीस बढ़ाई गई है। बढ़ी हुई फीस जुलाई से प्रभावी हो गई है, इसे छात्रों से जमा कराया जा रहा है।
-आईके मंसूरी, डिप्टी रजिस्ट्रार
जीवाजी विश्वविद्यालय
यह आम छात्रों के भविष्य से खिलवाड़ है। इतनी फीस दे पाना आम छात्र के बस की बात नहीं है, क्योंकि पैसे वाले पीएचडी नहीं करते हैं। पीएचडी आम छात्र ही करता है। ऎसे में विवि का यह निर्णय पूरी तरह से गलत है।
-डॉ। अन्नपूर्णा भदौरिया
शिक्षाविद्, ग्वालियर