शुक्रवार, 6 नवंबर 2009

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शनिवार, 12 सितंबर 2009

शरद जी बिजनेस क्लास चालू आहे!


केंद्र सरकार अपना खर्चा कम करने जा रही है। खर्चा कम कैसे होगा, इसी रूपरेखा की घोषणा खुद वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने की। घोषणा बेहतर थी और भरोसेमंद भी। भरोसेमंद इसलिए कि घोषणा करते ही प्रणव दा ने दो मंत्रियों को फाइव स्टार होटल से निकालकर बाहर कर दिया। बेचारे फाइव स्टार की शानौ-शौकत छोडक़र विभागों के गेस्टहाउस में आ गए। सांसदों को होटल से लाकर आवंटित घरों में रहने को भेज दिया। कहीं न कहीं, एक बेहतर संकेत मिला। लेकिन यह घोषणा कुछ बेहतर अमल कर पाती, उससे पहले ही कुनबे में कलह हो गया है। मंत्रियों को प्रणव दा की नसीहत नागुजार गुजरी है। उन्हें यह पसंद नहीं आया है कि उनकी शानौ-शौकत में कोई खलल डाला जाए। मंत्रियों ने प्रधानमंत्री से साफ कह दिया कि वह हवाई सफर बिजनेस क्लास में ही करेंगे। भले ही प्रणव दा खर्चे कम करने की नसीहत देते रहें। बेचारे प्रधानमंत्री जी भी क्या करते, न हां की और न ही उन्होंने न की। बस मौन और बस सिर्फ मौन रह गए। मंत्रियों के खर्चों में कटौती का विरोध करने वालों में सबसे आगे मराठी मानुष शरद पवार रहे। उन्होंने साफ कह दिया कि वह बिजनेस क्लास में ही सफर कर सकते हैं। उन्हें इकनॉमी क्लास में सफर करने में परेशानी होती है। परेशानी भी बड़ी शानदार है, उन्होंने कहा कि उन्हें इकनॉमी क्लास में आम लोगों के बीच में बैठना पड़ेगा। साथ ही इकनॉमी क्लास की सीटें आरामदेह नहीं होती हैं। कुल मिलाकर उनका लब्बो-लुआब यह था कि वह आम लोगों की कैटेगरी में बैठकर यात्रा कैसे कर सकते हैं, जबकि वह केन्द्र सरकार के काबीना मंत्री हैं। बस यही इस देश की बदकिस्मती है। जिसे देखो वही खुद को वीआईपी समझने लगता है। वीआईपी समझने की इस होड़ में हर कोई आम आदमी को छोडक़र आगे निकल जाता है। अब अपने शरद पवार को आम आदमियों से दूरी बनाना लाजिमी भी है। कहीं, इकनॉमी क्लास में यात्रा करते समय कोई यह न पूछ बैठे कि यह खाद्यान्न की बढ़ती कीमतें कब थमेंगी? मंत्री जी शक्कर के दाम कब तक बढ़वाते रहेंगे? आम आदमी की थाली पर कब तक महंगाई का डंडा चलाते रहेंगे? आखिर मंत्री जी के पास इन सवालों का जवाब तो है नहीं, सो दूरी बनाना ही बेहतर। शरद पवार जानते हैं कि बिजनेस क्लास में तो कम से कम यह कोई पूछने वाला नहीं है। आखिर बिजनेस क्लास में वही लोग चलते हैं, जिन्हें फायदा पहुंचाने के लिए शरद पवार आए दिन मुंह फट बयान जारी कर देते हैं। शरद पवार शायद इस देश के पहले ऐसे कृषि मंत्री होंगे, जिन्होंने खाद्यान्नों के दाम बढऩे कि आए दिन भविष्यवाणी कर कालाबाजारियों को पनपने का मौका दिया। प्रणव दा के मनी मैनेजमेंट का विरोध करने वालों में अकेले शरद पवार ही नहीं हैं। बल्कि उनके कई भाई लोग भी शामिल हैं। कैबिनेट में शामिल इन भाई लोगों में फारुख अब्दुला से लेकर एमएम कृष्ण समेत तमाम लोग हैं। जिन्हें मंत्री बनने का मतलब ताम-झाम और शानौशौकत मालूम है। अब इन मंत्रियों को कौन समझाए कि अगर ऐश करना ही है तो देश के आम गरीब की गाढ़ी कमाई को क्यों बर्बाद कर रहे हैं। अपने घर से पैसे लाइए और ऐश करिए कोई नहीं रोकेगा। उम्मीद की जानी चाहिए थी कि प्रणव दा के इस मुद्दे पर विपक्ष भी उनका साथ देता। लेकिन विपक्ष भी खामोश हो गया, मालूम है कि जो प्रणव दा आज कर रहे हैं। वह उनके साथ भी लागू होगा। अब भई शरद पवार अकेले एक पार्टी में तो हैं नहीं। दूसरी पार्टियों में भी सर से लेकर पांव तक शरद पवार ही भरे हुए हैं। ऐसे में आम आदमी तो सिर्फ दुआ ही कर सकता है। आमीन!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!

गुरुवार, 27 अगस्त 2009

पब्लिक नेताओं की जय बोल!

आजकल टीवी पर एक विज्ञापन खूब दिख रहा है, विज्ञापन है हरियाणा सरकार का। वही हरियाणा सरकार जिसे भंग करने की सिफारिश वहां की कैबिनेट ने खुद मुख्यमंत्री की अध्यक्षता में कर दी है। विज्ञापन में मुख्यमंत्री अपनी कालर चमकाते नजर आते हैं। कहा जाता है कि हरियाणा विकास के मामले में नंबर वन हो गया है। नंबर वन हरियाणा के नाम से शुरू हुई यह विज्ञापन केम्पेन हरियाणा के सूचना एवं जन संपर्क विभाग की ओर से है। यह विज्ञापन कई सवाल खुद ब खुद खड़े कर देता है। खासकर तब जब खुद हरियाणा के तथाकथित विकास की हालत किसी से छुपी नहीं है। बावजूद इसके मुख्यमंत्री भूपेंदर सिंह हुड्डा खुद को विकास पुरुष साबित करने में जुटे हुए हैं। अब सवाल यह है कि करोड़ों रुपए देकर खुद को विकास का मसीहा साबित करने का काम खुद मुख्यमंत्री कर रहे हैं। वह भी तब जब वह खुद विधानसभा भंग करने की सिफारिश कर चुके हैं। मतलब साफ है, अगले कुछ दिनों में चुनाव होने हैं। ऐसे में सरकारी पैसे से खुद की तारीफ करने का काम किया जा रहा है। अब सवाल यह है कि सरकारी खजाने का पैसा क्या हुड्डा अपने घर से लेकर आए हैं जो अपनी कालर चमकाने के लिए बर्बाद कर रहे हैं। आखिर यह नेता क्यों नहीं समझते कि जिस पैसे को वह पानी की तरह बहाते हैं, वह किसी कीगाढ़ी कमाई का हिस्सा है। सवाल यह नहीं है कि पैसा केसे बहाया जा रहा है, सवाल यह है कि पैसा किस लिए बहाया जा रहा है। सिर्फ अपनी तारीफों के लिए पैसा खर्च करना कहां तक सही है, वह भी तब जब खुद देश में सूखा मुंह खोलकर खड़ा हुआ है। स्वास्थ्य, बिजली, पानी, सडक़ और शिक्षा जैसी मूलभूत सुविधाओं की हालत देश में बद से बद्तर है। बावजूद इसके किसी को भी इसकी चिंता नहीं है, तो फिर हुड्डा को चिंता करके करना क्या है? इस देश में हुड्डा अकेले ऐसे नेता नहीं हैं, जो देश की जनता की गाढ़ी कमाई को बर्बाद करने से परहेज नहीं करते हैं। इस देश में हुड्डा सरीखे नेताओं की फौज कम नहीं है। कभी इंडिया शाइनिंग के नाम पर अरबों रुपए खर्च कर दिए गए तो फिर कभी बदलेगा इंडिया पर अरबों रुपए फूंक दिए। अब उत्तर प्रदेश में मायावती को ही देख लो, जिंदा में ही मूर्तियां लगवाने निकल पड़ी हैं। करोड़ों रुपए अंबेडकर स्मारक के नाम पर फूंक दिए और अरबों रुपए अपनी मूर्तियों पर फूंकने में जुटी हुई हैं। अगर मायावती डॉ भीमराव अंबेडकर के सिद्धांतों को समझ गई होती तो उन्हें उनके नाम पर स्मारक बनवाने की जरूरत नहीं पड़ती, उसकी जगह पर वह जरूरत मंद लोगों के विकास की बात वह कर रही होतीं। भारतीय राजनीति में मायावती शायद एकमात्र ऐसी नेता होंगी, जिन्होंने जिंदा में ही अपनी मूर्तियां लगवाना शुरू कर दिया है। अब मायावती को कौन समझाए कि जिस पैसे से वह मूर्तियां लगवा रही हैं, वो पैसा वह अपने घर से लेकर नहीं आई हैं। यह पैसा आम आदमी की जेब से आया है और उसे खर्च करने का पहला अधिकार उसी आम आदमी का है। लेकिन सवाल यह है कि यह कौन समझाए? इससे भी बड़ा सवाल यह है कि यह समझेगा कौन? महाराष्ट्र को ही ले लें, चुनाव नजदीक हैं सो मराठा कार्ड खेलना राजनीति की जरूरत थी, सो हो गया ऐलान कि अरब सागर में शिवाजी का स्मारक बनेगा। स्मारक बनाने का ठेका भी दे दिया गया किसी विदेशी कम्पनी को। इस स्मारक के बारे में सोचकर यह समझने कि भूल करने कि जरूरत कतई नहीं है कि महाराष्ट्र के नेताओं को शिवाजी से कोई प्रेम उत्पन्न हो गया है। यह तो राजनीति कि जरूरत है जो शिवाजी को भी बेचने की तैयारी हो गई है। कुल मिलाकर इस देश में आम आदमी के पैसे को जैसे बर्बाद किया जा सकता है, सरकार और उनके नुमांइदे करने में जुटे हैं। किसी को भी इस बात कि फिकर नहीं है कि इस पैसे पर पहला अधिकार किसका है। खादी खद्दर पहनने भर से देश का भविष्य बनाने का मुगालता इस देश के नेताओं में आ गया है। मजे की बात यह है कि पैसे की फिजूलखर्ची का विरोध करने वाला भी कोई नहीं है। कारण साफ है, हमाम में सब नंगे जो हैं। कौन किसको सीख दे। अपनी तारीफों के पुलिंदे बांधने वाले विज्ञापनों और खुद की मूर्तियां लगाने वालों को करना तो यह चाहिए था कि वह इन सब में पैसा खर्च करने कि बजाय अगर सच में आम आदमी के विकास को ध्यान में रखकर काम करते तो उन्हें यह सब कुछ नहीं करना पड़ता। रही बात स्मारक बनाने की, तो मैं इसका कोई विरोधी नहीं हूं। लेकिन कोई भी महापुरुष यह नहीं कहता कि पत्थर लगाकर उसको याद करो। अगर महापुरुषों को याद ही करना है तो उनके आदर्शों को अपनाने कि जरूरत होगी, जो शायद इन खादीधारियों के बस की बात नहीं है। कुल मिलाकर यही कह सकता हूं कि पब्लिक इन नेताओं की जय बोल!!!
आमीन !!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!

रविवार, 9 अगस्त 2009

पीएचडी, न बाबा न!

अगर आप जीवाजी विश्वविद्यालय से पीएचडी करने का मन बना रहे हैं तो सावधान हो जाएं। अब आपको पहले के मुकाबले पांच गुना तक जेब ढीली करनी पड़ सकती है। जीवाजी विवि ने पीएचडी की फीस में पांच गुना तक बढ़ोतरी की है। ऎसे में यहां पर पूरे प्रदेश के मुकाबले पीएचडी सबसे महंगी हो गई है।
सूत्रों के मुताबिक, जीवाजी विवि ने जुलाई से अपना नया फीस कैलेंडर शुरू किया है। उसी के हिसाब से फीस ली जा रही है। नए कैलेंडर में कुछ विभागों और पाठयक्रमों की फीस बढ़ाई गई है। उन्हीं पाठयक्रमों में पीएचडी भी शामिल है। अभी तक विश्वविद्यालय में पीएचडी की फीस दस हजार रूपए के करीब हुआ करती थी, लेकिन अब उसे बढ़ाकर पचास हजार रूपए कर दिया गया है। कुल मिलाकर पीएचडी करना आम शोधकर्ता की जेब से काफी दूर होती नजर आ रही है। हालांकि विश्वविद्यालय का यह फैसला शिक्षाविदों को रास नहीं आ रहा है। वह इसे आम छात्र से पीएचडी दूर करने की साजिश करार दे रहे हैं।
मालूम नहीं, फीस बढ़ी
विश्वविद्यालय में फीस बढ़ा दी गई है और मजे की बात यह है कि कुलसचिव इस बात से पूरी तरह अंजान हैं। पत्रिका ने कुलसचिव पीएन जोशी से जब इस बारे में बात करनी चाही तो उन्होंने कहा कि उन्हें इस बारे में कोई जानकारी नहीं है। हालांकि उन्होंने एक दो दिन में जानकारी कर बताने का आश्वासन दिया है।
प्रदेश में सबसे महंगी पीएचडी
अगर पूरे प्रदेश की बात करें तो जीवाजी विश्वविद्यालय पीएचडी कराने के मामले में सबसे महंगा हो गया है। प्रदेश के पांचों सरकारी विश्वविद्यालयों के मुकाबले जीवाजी विश्वविद्यालय की फीस सबसे ज्यादा है। दूसरे विश्वविद्यालय 15 से 20 हजार रूपए बतौर फीस वसूल करते हैं, जबकि जीवाजी विश्वविद्यालय ने फीस को कई गुना बढ़ा दिया है।
पीएचडी की फीस बढ़ाई गई है। बढ़ी हुई फीस जुलाई से प्रभावी हो गई है, इसे छात्रों से जमा कराया जा रहा है।
-आईके मंसूरी, डिप्टी रजिस्ट्रार
जीवाजी विश्वविद्यालय
यह आम छात्रों के भविष्य से खिलवाड़ है। इतनी फीस दे पाना आम छात्र के बस की बात नहीं है, क्योंकि पैसे वाले पीएचडी नहीं करते हैं। पीएचडी आम छात्र ही करता है। ऎसे में विवि का यह निर्णय पूरी तरह से गलत है।
-डॉ। अन्नपूर्णा भदौरिया
शिक्षाविद्, ग्वालियर

शुक्रवार, 29 मई 2009

वादा निभाना तो राहुल से सीखिए

नेताओं को हमेशा से वादा कर भूल जाने के लिए जाना जाता है। लेकिन राजनीति में अगर किसी को वादा निभाना सीखना है तो राहुल गांधी से बेहतर विकल्प उसके दूसरा नहीं हो सकता है। दरअसल, राहुल गांधी ने जिन लोकसभा इलाकों में मंत्री देने का वायदा किया था, वह उन्होंने मंत्रीमंडल के विस्तार में पूरा कर दिखाया। चाहे उत्तर प्रदेश से प्रदीप जैन, जितिन प्रसाद हों या फिर मध्यप्रदेश से अरुण यादव और राजस्थान से सचिन पायलट। उन्होंने जिनसे भी वायदा किया पूरा कर दिखाया। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस पार्टी में दोबारा से जान फूंकने के लिए राहुल गांधी ने झांसी से आगाज किया था। बुंदेलखंड के हालातों से रूबरू हुए थे। उस दौरान जो उत्साह पार्टी कार्यकर्ताओं में आया, उसने राहुल गांधी को खुद एक ताकत दे दी। बस फिर क्या था, राहुल ने थाम ली उत्तर प्रदेश की कमान। उसी कमान का असर दिखाई दिया लोकसभा चुनावों के परिणामों में। जब ८० में से पार्टी २१ सीटें जीतने में कामयाब हुई। सबसे खास बात यह है कि लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान कुछ संसदीय क्षेत्रों में राहुल गांधी ने वायदा किया था कि अगर उनके उम्मीदवार को जिताया तो वह उसे मंत्री बनाकर क्षेत्र के विकास की जिम्मेदारी सौंपेंगे। कुछ सीटों पर न सही, लेकिन कुछ सीटों ने राहुल की इच्छा को पूरा किया और उनके उम्मीदवार को जिताकर भेज दिया। जीतने वालों में उत्तर प्रदेश से प्रदीप जैन और जतिन प्रसाद तो मध्यप्रदेश से अरुण यादव और राजस्थान से सचिन पायलट कद्दावर नेताओं को धूल चटाकर लोकसभा पहुंच गए। जीतने के बाद चारों को ही मंत्री बनने की कोई आस नहीं थी। यह लोग खुद सांसद बनकर खुश थे। लेकिन राहुल तो राहुल हैं तीनों को राज्यमंत्री बनाकर उन्होंने अपना वायदा पूरा कर दिया। इतना ही नहीं, उन्होंने उन लोगों को भी सीख दे जो वादा कर भूल जाते हैं। लेकिन अब यह जिम्मेदारी इन तीनों मंत्रियों पर भी है कि वह भी इस बात का ध्यान रखें कि वादा किया है तो निभाना पड़ेगा। आमीन ......................................

रविवार, 17 मई 2009

मैं टीवी और अखबार वालों पर भरोसा नहीं करता

चौदह मई की शाम है। घड़ी में शाम के करीब सवा सात बजे होंगे। मैं अपने दो मित्रों के साथ दफ्तर में बैठा हुआ था। फोन की घंटी बजी, मोबाइल की स्क्रीन पर नजर डाली तो मेरे पत्रकार मित्र का फोन था। बड़े पत्रकार साथी हैं। हाल-चाल पूछने के बाद राजनैतिक हालत और हालात को लेकर चर्चा शुरू हुई। चर्चा कुछ बढ़ गई, हालांकि इस दौरान में यह भूल गया कि मैं किसी मित्र के साथ बैठा हुआ हूं। ग्वालियर के हालत से लेकर मध्यप्रदेश, राजस्थान और पूरे देश में घूमते हुए चर्चा दिल्ली के हालातों तक जा पहुंची। इस बीच टीवी चैनलों और अखबारों के एक्जिट पोल पर भी चर्चा होना स्वाभाविक थी, सो हुई भी। मैं अखबार और टीवी वालों के पोल से शायद इत्तेफाक नहीं रखता था सो अचानक ही मेरे मुंह से निकल गया कि मैं टीवी और अखबार वालों पर भरोसा नहीं करता। दूसरी ओर से जवाब के तौर पर सिर्फ ठहाके ही सुनाई दिए। शायद उनके पास भी शायद इसका कोई जवाब नहीं था। लेकिन इस बीच तक मुझे होश आ गया कि मेरे साथ कोई और भी है। जो अखबारी दुनिया से बेगाना है। झटपट मित्र से तो फोन पर बात खत्म की । सामने मुखातिब हुआ तो मेरे मित्र मुझे घूर रहे थे। उनकी आंखों में तैरते हुए सवाल मुझे साफ नजर आ रहे थे। उन्होंने भी झट से सवाल दे मारा, शैलेंद्र जी खुद अखबार वाले होकर दूसरे अखबार वालों पर भरोसा क्यों नहीं है? शायद मैं निरुत्तर था, लेकिन कुछ ठहराव के बाद मेरे मुंह से सिर्फ इतना ही निकला कि मैं भी कितना भरोसेमंद हूं? खबरों कि दौड़ती भागती जिंदगी में, हावी होते मैनेजमेंट और खबरों को पैदा करने वाली होड़ में कहां तक भरोसेमंद बना रहूंगा मैं? शायद मैं भरोसेमंद बना भी रहूं तो भी मुझ पर भरोसा कौन करेगा, जब पूरी बिरादरी से लोगों का भरोसा उठ जाएगा! बात शायद खत्म हो चुकी थी, लेकिन मेरे अंदर बात अभी भी खलबली मचा रही थी। मन में उलझन थी। बस यही सोच रहा था कि क्या हम अपने भरोसे को बरकरार रखने कि कोशिशों को जिन्दा रख रहे हैं या नहीं। ऐसे में अखबार और टीवी वालों के एक्जिट पोल कहाँ तक सही होंगे। वो भी उस हालत में जब यह पोल पूरी तरह से झूठ का पुलिंदा साबित होते हैं। आखिर झूठ साबित भी क्यों न हों, आख़िर कितने जमीनी होते हैं यह पोल? शायद हर कोई जानता है। कुछ हजार लोगों के सहारे पूरे देश कि राय बताने कि कोशिश करने वाले पोलों कि हकीकत जगजाहिर है। एसी कमरों में बैठकर पूरे देश की राय नहीं जानी जाती। राय जानने के लिए जमीन पर आकर धूल फांकनी पड़ती है। तब भी यह पूरी तरह से संभव नहीं है कि सही अनुमान हासिल किया जा सके। मैं सोच रहा था कि क्या वाकई मीडिया हाउस एक्जिट पोल के जरिए सच्ची तस्वीर पेश करने कि कोशिश करते हैं। या कहीं ऐसा तो नहीं, यह कुछ राजनैतिक दलों कि मक्खनबाजी की कोशिश भर हो। मतलब साफ है, तुम्हारी भी जय हो और हमारी भी जय हो। आखिर कुछ हजार लोगों से सवाल पूछकर एक करोड़ देशवासियों के बारे में कोई राय तय नहीं की जा सकती है? वो भी मेरी नजर में तो शायद नहीं। आम आदमी भी मेरी नजर से इत्तेफाक रखेगा, ऐसी मुझे पूरी उम्मीद है। पूरे चुनावी माहौल में मुझे भी कई इलाकों में काम करने का मौका मिला है। कई चुनावों को करीब से देखा भी है। लेकिन यह भी नहीं कह सकता की बहुत कुछ देखा है। देखने और सीखने की कोशिश तो जिंदगी की सतत प्रक्रिया है। लेकिन मैंने जो देखा उसी के आधार पर कह सकता हूं की मतदाता जागरुक हो रहा है। वो अपने दिल की बात यूं ही नहीं बता देता। कहता कुछ है और करता कुछ। वोट कहीं करता है और पसंद किसी और की बताता है। ऐसे में आम आदमी के दिल की बात सामने आएगी, उम्मीद कम ही है। यही कारण है की एक्जिट पोल गलत साबित होते आए हैं और एक बार फ़िर से गलत साबित हुए हैं। अब सवाल यह है, जब एक्जिट पोल गलत साबित ही होते हैं तो फिर यह अखबार और टीवी वाले कराते ही क्यों हैं? क्यों टीवी चैनल वाले कई-कई घंटों तक इन झूठे पोल के जरिए लोगों को उलझाने की कोशिशों में जुटे रहते हैं। इसकी भी अपनी वजहें हैं, आखिर अब टीवी पर दिखाने के लिए खबरें कहां हैं और अखबार वालों को टीवी की नकल करने से फुर्सत कब मिलती है। जरूरत है दोनों माध्यमों को फिर से सोचने की। कुछ नयापन लाने की और अपने विश्वास को बरकरार रखने की। अगर यही हाल रहा तो आज मैं, कल कोई और, और परसों कोई और कहेगा, मैं टीवी और अखबार वालों पर भरोसा नहीं करता।

शुक्रवार, 23 जनवरी 2009

ये कोई अपना सा कितना अपना है

अमरीका की राजधानी वाशिंगटन डीसी में कैपिटॉल हिल और व्हाइट हाउस के बीच स्थित द मॉल पर खड़ा यह काला सा आदमी कुछ अपना सा दिखाई दे रहा है। शायद इस लिए भी कि उसका नाम बराक हुसैन ओबामा है। बराक और ओबामा शायद अमेरिका के लिए होगा हमें तो सिर्फ़ हुसैन ही दिखाई और सुनाई दे रहा है। अमेरिका मै शपथ लेन वाला कोई हुसैन होगा, इसकी कल्पना शायद ही किसी ने की होगी। लेकिन दुनिया बदल रही है और इसके साथ ही अब कल्पनाओं को भी बदलने का समय आ गया है। दुनिया के तथाकथित सर्वशक्तिमान देश का राष्ट्रपति हुसैन बन चुका है। दुनिया का ताकतवर आदमी एक कला आदमी हो गया है। तो कह दो पूरी दुनिया वालों से अब काले लोगों की हुकूमत आ गई है। सुनकर कितना अच्छा लगा। शायद ऐसा मुमकिन होगा।
खैर बात हो रही थी अपनेपन की तो अपने हुसैन से हमें कुछ आस और उम्मीदें भी है। हुसैन सुनकर तो लगता है की जैसे कोई भारतीय ही अमेरिकी रास्त्रपति बन गया हो। शायद यही कारन रहा होगी कि भारतीय मीडिया ने ओबामा को सर आँखों पर बिठाया। ओबामा के खाने लेकर पीने तक की हर ख़बर भारतीय मीडिया ने बताई और दिखाई भी। ओबामा जितने अमेरिका मै हीरो बने है, उससे ज्यादा भारतियों के दिमाग मै छा गए है। मीडिया ने ओबामा से पूरी दुनिया को कुछ आस उम्मीद भी बना दी है। अब हुसैन तो हमारे ठहरे तो कुछ ज्यादा उम्मीदें पाल लेने मै कोई बुरे भी तो नही है। भारतियों ने भी कुछ यही किया है, इस्स्में सायद भारतीय मीडिया का भी अहम् रोल है। जिसने ओबामा को भारतियों बीच का आदमी साबित कराने मै कोई कसार बाकी नही रखी. अब अपने से उम्मीद लगना भी बेमानी नही है, सो भारतियों ने भी ओबामा से कई उम्मीदें सजा रखी है। भारतियों को उम्मीद है की ओबामा पाकिस्तान को आतंकबाद को ख़त्म करने के लिए कहेंगे और उसे मिलने वाली सहायता पर भी कुछ रॉक लायेंगे। कुल मिलकर आतंकबाद से लाकर हर समस्या का समाधान ओबामा के पास होगा, ऐसा भारतियों और ओबामा से उम्मीदें लगाये लोगों का मानना है। पर शायद ऐसा कराने की अमेरिकी राष्ट्रपति की मंशा हो। शब्दों के जादूगर ओबामा ने कुछ उम्मीदें रख छोडी है। लेकिन इन उम्मीदों पर वह कितने पूरे होंगे यह तो आने वाला समय ही बताएगा। अपना सा लगाने वाला यह कितना अपना होगा, अभी तो कहना मुश्किल ही है। उसकी भी वजह साफ़ है, ओबामा ने अभी ऐसा कुछ भी नही किया है की हमें लगे की वह हमारा अपना सा है। फिर भी हमें ओबामा से अपने होने का इंतज़ार रहेगा। आखिरकार हमारे तथाकथित दिग्गजों ने हमें ओबामा से कुछ उम्मीदें जो दिखाई है। अब ये उम्मीदें पूरी होंगी, इसके लिए तो वक्त का ही इंतज़ार करना पड़ेगा।